यह कौन सा दर्द है जो दिन-भर है रहता पर दिखार्इ नहीं पड़ता ओर रात होते ही जाने किस कोने से निकल पसलियों को चीरता नस-नस में पसर जाता है और हदय में बनकर कसक आंखो से फूटता झर-झर झरता है जाता । बहते-बहते ज़ख्मों को साथ लिए उन्हें तड़पाता, आगे बढ़ता जाता । लाखों मली दूरी तय करके कितने प्राणियों की प्यास बुझाता उनके पापो को हरता बढ़ता चला जाता किसी नदी-सा । दर्द का सोता शापित नदिया बन दूर तलक फैले विशाल समन्दर की बांहो मे जा सिमटता है और अपने असितत्व से छुटकारा पा लेता है। धीर-गम्भीर समन्दर में समाहित नदी विलीन हो गर्इ । अब वहा है सिर्फ खारापन इतनी-सी है कहानी । बस इतनी-सी है कहानी । इस इतनी-सी कहानी की यात्राा के दौरान कितने ही पड़ाव आए, कटाव आए, उमड़ाव आए और तलबगा़र आए । नदी ने विद्रोह की भाषा भी अपनार्इ सिर्फ अपने असितत्व को बचाए रखने के लिए जो अन्तत: नदीश्वर की ठहरी ।
समन्दर-सा रहस्य कोर्इ नही जानता कि जीवन क्या है? यह तो सभी जानते हैं कि जीवन के बाद मृत्यु है पर फिर भी जीवन की परिभाषा कोर्इ नहींं जानता । मृत्यु के बाद जीवन ओर जीवन के बाद मृत्यु । यह खेल हर कोर्इ खेलता है पर जीवन के साथ कौन खेलता हैं। कितने लोग हैं जो जीवन के सााि खेल खेलते हैं, इस प्रश्न के उत्तर में कर्इ हाथ ऊपर उठ जाएंगे पर वास्तव में वेंं नही जानते कि वे क्या जीवन के साथ खेल खेलते है, जीवन उनके साथ खेलता है । कर्इ बार इंसान ने अनुभूत किया होगा किवह कहीं जाने का कार्यक्रम बनाता है या पूरे दिन की सारिणी बनाता है कि दतने बजे ये करेंगा, इतने बजे यहां जाएगा, इतने बजे फला सें मिलेगा। अगले दिन की बात तो छोड़ो उसी दिन के लिए निशिचत कार्य ही वह पूर्ण नही कर पाता । एक अघटित घटना घटित हो जाती है और पूरे कार्यक्रम का वजूद खकसार हो जाता है।
तो बताइए........... खेल कौन खेलता है, इन्सान या जीवन ?
Publisher : Onlinegatha
Edition : 1
ISBN : 978-93-85818-25-7
Number of Pages : 364
Weight : 190 gm
Binding Type : Ebook
Paper Type : Cream Paper(70 GSM)
Language : Hindi
Category : Fiction
Uploaded On : December 21,2015
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रचनाकार अंजु दुआ जैमिनी की नवीनतम काव्य-कृति है |अंजु दुआ को शिददत से एहसास है कि रूह को पनाह सिर्फ खुदा ही दे सकता है और खुदा तक पहुचना सबके लिए मुमकिन नहीँ क्योंकि उससे साक्षात् करने की कुव्वत सिर्फ इश्क में है| अंजु ने इस शाशवत सत्य को छोटी-छोटी कविताओ को समालोचक भले ही क्षणिकाओं की संज्ञा दें किन्तु इस सच्चाई से भी इंकार नहीं कर सकते कि इनका प्रभाव क्षणिक नहीं है बल्कि ये पाठको के मनो-मस्तिष्क पर लंबे अरेसे तक छाई रहेंगी और उन्हें उद्वेलित करती रहेंगी